‘हुस्न पहाड़ों का ओ साहिबा, हुस्न पहाड़ों का, क्या कहना की बारों महीने, यहां मौसम जाड़ों का’, फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ का यह गीत वर्ष 1984 में उत्तराखंड के हर्षिल की वादियों में फिल्माया गया था। यह गीत बताता कि हर्षिल घाटी किस तरह प्रकृति की नेमतों को खुद में समेटे हुए है। इसमें कोई दोराय नहीं कि हर्षिल घाटी नैसर्गिक सुंदरता की सिरमौर है।
ऐसा प्रतीत होता है, मानो प्रकृति ने इसे फुर्सत में संवारा हो। यही वजह है कि यहां जो एक बार आता है, फिर बार-बार यहां आना चाहता है।
समुद्रतल से 7860 फीट की ऊंचाई पर है स्थित
उत्तरकाशी जिले में भागीरथी (गंगा) नदी के किनारे हिमालय की गगन चूमती सुदर्शन, बंदरपूंछ, सुमेरू और श्रीकंठ चोटियों की गोद में समुद्रतल से 7,860 फीट की ऊंचाई पर बसे हर्षिल को भारत का मिनी स्विट्जरलैंड भी कहा जाता है।
घुमावदार और घेरदार घाटी
सुक्की से लेकर भैरव घाटी तक करीब 20 किमी क्षेत्र को हर्षिल घाटी के नाम से जाना जाता है। इस घाटी में बहती भागीरथी नदी और ऊंची खड़ी चट्टानों में ध्वज जैसे खड़े देवदार के पेड़, कहीं आसमान में उमड़ते-घुमड़ते बादल तो कहीं चटख धूप के नजारे सबसे खास होते हैं।
भागीरथी के किनारे की घुमावदार व घेरदार घाटियां हर्षित की सुंदरता को और बढ़ा देती हैं। बर्फ से ढकी चोटियों के ऊपर बादलों की अठखेलियों के दृश्य तो पर्यटकों को सम्मोहित-सा कर देते हैं।
वाइब्रेंट विलेज योजना में भी शामिल
चीन सीमा के निकट होने के कारण हर्षिल घाटी के आठ गांव वाइब्रेंट विलेज योजना में भी शामिल हैं। वर्ष 2016-17 में हर्षिल इनर लाइन की पबंदियों से भी मुक्त हो चुका है। इसके बाद यहां पर्यटन से जुड़े कई कार्य मास्टर प्लान के तहत हुए। हर्षिल के निकट बगोरी, धराली व मुखवा गांव में भी पर्यटक बड़ी संख्या में पहुंचते हैं।
इस डाकघर में रहता था मंदाकिनी को चिट्ठी का इंतजार
वर्ष 1984 में बनी फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ के अधिकांश दृश्य हर्षिल व उसके आसपास के क्षेत्रों में फिल्माए गए थे। इनमें हर्षिल का वह डाकघर आज भी मौजूद है, जिसमें मंदाकिनी चिट्ठी का इंतजार करती थी। इस डाकघर से पर्यटक रूबरू हो सकें, इसके लिए प्रशासन ने ‘राम तेरी गंगा मैली’ के एक दृश्य का पोस्टर भी लगाया। हर्षिल के निकट जिस झरने में मंदाकिनी नहाई थी, उसे अब मंदाकिनी झरने के नाम से जाना जाता है।
हर्षिल की सुंदरता को भी निहारें
हर्षिल में भगवान श्रीहरि का मंदिर है, जिसे श्रीलक्ष्मी-नारायण मंदिर के रूप में जाना जाता है। यहां भागीरथी और जलंद्री नदी के संगम पर एक शिला मौजूद है, जिसे हरि शिला कहते हैं। भारत-चीन सीमा पर तैनात सेना की हर्षिल में छावनी भी है। वर्षभर सेना के जवानों की चहलकदमी यहां तीर्थ यात्रियों और पर्यटकों में देशभक्ति का जोश भरती है।
बगोरी जाना न भूलें
मां गंगा शीतकालीन प्रवास स्थल मुखवा (मुखीमठ) से चार किमी की दूरी पर बगोरी गांव पड़ता है। यहां लकड़ी से बने घरों की सुंदरता देखते ही बनती है। आप इन घरों में होम स्टे के तहत रुक सकते हैं। साथ ही गांव में कैंपिंग की भी व्यवस्था है। गांव के बीच में लाल देवता का मंदिर और बौद्ध स्मारक भी है।
बगोरी के लोग पहले भारत-चीन सीमा के जादूंग व नेलांग गांव में रहते थे। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान जब ये गांव खाली कराए गए तो तब यहां के ग्रामीणों ने बगोरी में नया ठिकाना बनाया। ये लोग जाड़, भोटिया और बौद्ध समुदाय के हैं।
ये स्थानीय उत्पाद खरीदें
अधिक ठंडा क्षेत्र होने के कारण हर्षिल व बगोरी में घर-घर भेड़ की ऊन के वस्त्र तैयार होते हैं। आप यहां पारंपरिक वस्त्र थुलमा, पंखी, शाल, स्वेटर, कोट, दन्न, कालीन व चुटका की खरीदारी भी कर सकते हैं। इसके अलावा हर्षिल की राजमा का स्वाद जरूर लें। पतला छिलका होने के कारण बिना सोडा डाले ही आसानी से पकने वाली राजमा की हर्षिल की मुख्य पहचान है। स्वाद की दृष्टि से भी हर्षिल की राजमा का कोई जवाब नहीं।
बर्फबारी का भी लें आनंद
शीतकाल के दौरान हर्षिल क्षेत्र में रात के समय तापमान शून्य से नीचे पहुंच जाता है। 15 दिसंबर से लेकर 15 मार्च तक यह क्षेत्र बर्फ की चादर ओढ़े रहता है। बर्फबारी का आनंद लेने के लिए इस दौरान सबसे अधिक पर्यटक पहुंचते हैं। सीमांत क्षेत्र होने के कारण यहां बर्फबारी से अवरुद्ध सड़क तत्काल खुल जाती है। इसके लिए सीमा सड़क संगठन के जवान चौबीसों घंटे तैनात रहते हैं। बस! यहां ठंड से बचने के लिए आपके पास गर्म कपड़े होने जरूरी हैं।
विल्सन को हर्षिल की प्रसिद्धि का श्रेय
हर्षिल की खोज एवं इसे प्रसिद्ध दिलाने का श्रेय ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करने वाले अंग्रेज फ्रेडरिक विल्सन को जाता है। फ्रेडरिक विल्सन को हर्षिल का राजा भी कहा जाता है। हर्षिल में सेब की बागवानी और राजमा के खेती फ्रेडरिक विल्सन ने ही शुरू की थी।
ऐसे पहुंचें
हर्षिल पहुंचने के लिए सड़क मार्ग से ऋषिकेश से चंबा होते हुए उत्तरकाशी तक 160 किमी की दूरी तय करनी पड़ती है। देहरादून से सुवाखोली होते हुए यह दूरी 140 किमी है। उत्तरकाशी से हर्षिल 75 किमी की दूर पर स्थित है। यह गांव सड़क से जुड़ा हुआ है।